रोजगार देने में फेल रेवंत सरकार की नई चाल
तेलंगाना में भी जातीय जनगणना का राहुलवादी फर्जी शिगूफा
तेलंगाना की 162 जातियां सामाजिक और शैक्षिक रूप से पिछड़ी हैं
इन पिछड़ी जातियों को सियासी जुमलेबाजियों से कोई फायदा नहीं
शिगूफों के बूते भाजपा से नहीं लड़ सकती कांग्रेस पार्टी : विशेषज्ञ
रेवंत सरकार नीलू, निधूलू और नियमकालू में नाकाम साबित हुई
शुभ-लाभ विमर्श
तेलंगाना में रेवंत रेड्डी के नेतृत्व वाली कांग्रेस सरकार ने हाल ही में तेलंगाना सामाजिक, जातिगत, आर्थिक, रोजगा
बिहार और कर्नाटक के बाद तेलंगाना जातिगत जनगणना कराने वाला तीसरा राज्य बन जाएगा। कांग्रेस पार्टी ने ऐसी ही कवायद राष्ट्रीय स्तर पर भी कराने की मांग उठाई है। कई लोग जातिगत जनगणना को मंडल 2.0 की संज्ञा दे रहे हैं और इसे हिंदुत्व की राजनीति के खिलाफ तुरुप का पत्ता मान रहे हैं। हालांकि राजनीति के विशेषज्ञ यह मानते हैं कि भाजपा और संघ परिवार से लड़ने में कांग्रेस या विपक्ष की यह रणनीति कारगर साबित नहीं होने वाली है।
तेलंगाना की जातिगत जनगणना में यह तथ्य सामने आया है कि राज्य की आबादी का करीब 56 प्रतिशत पिछड़ी जातियों से आता है जिसमें मुस्लिम समुदाय की पिछड़ी जातियां भी शामिल हैं। गैर-मुस्लिमों में पिछड़ी जातियों की आबादी कुल आबादी का लगभग 46 प्रतिशत है। इस डेटा के आधार पर तेलंगाना की कैबिनेट ने सार्वजनिक शिक्षा और सरकारी नौकरियों में पिछड़ी जातियों का कोटा 25 प्रतिशत से बढ़ाकर 42 प्रतिशत करने के बिल को मंजूरी दे दी है। कई राजनीतिक दलों तथा जाति-आधारित संगठनों ने चुनावी गणित के मद्देनजर जातिगत जनगणना को लेकर आपत्तियां उठाई हैं। इस जनगणना की पद्धति को लेकर भी तमाम सवाल उठाए जा रहे हैं। रेवंत रेड्डी सरकार के ऊपर आरोप लगाए जा रहे हैं कि उसने जातिगत जनगणना में पिछड़ी जातियों की संख्या जानबूझकर कम दिखाई है। बीआरएस यह आरोप लगा रही है कि जनगणना में उच्च जाति की संख्या को बढ़ा-चढ़ाकर दिखाया गया है। जबकि भाजपा का आरोप है कि सरकार मुस्लिमों का तुष्टिकरण करने के लिए उनमें पिछड़ी जातियों की संख्या बढ़ा-चढ़ाकर पेश कर रही है।
सवाल यह उठता है कि जातिगत जनगणना के मुद्दे पर चल रही राजनीति पर मजदूर वर्ग का क्या दृष्टिकोण होना चाहिए। इसमें कोई दो राय नहीं है कि देश के अन्य भागों की ही तरह तेलंगाना में भी पिछड़ी जातियों की बहुत बड़ी संख्या मजदूर वर्ग और मेहनतकश जनता का हिस्सा है। सवाल यह भी है कि पिछड़ी जातियों के आरक्षण को बढ़ाने के बाद भी पिछड़ी जातियों के कितने प्रतिशत लोगों का लाभ होने वाला है? तेलंगाना में कुल 162 ऐसी जातियां हैं जिन्हें सामाजिक और शैक्षिक रूप से पिछड़ा माना गया है। किसी भी अन्य जातीय समुदाय की ही तरह ये जातियां भी वर्गों में विभाजित हैं। इनमें से बेहद छोटी आबादी ऐसी है जो अपने बच्चों को अच्छी शिक्षा दिला पाती है और हैदराबाद में अशोक नगर, आरटीसी क्रॉस रोड तथा दिलसुखनगर जैसे इलाकों में प्रतियोगी परीक्षाओं की तैयारी के लिए भेज पाती है, जहां कोचिंग सेंटर, लाइब्रेरी, रीडिंग रूम और किराए के घर तथा पेइंग गेस्ट जैसी सुविधाएं बेहद महंगे दामों पर उपलब्ध हैं। पिछड़ी जातियों का अधिकांश हिस्सा कारीगर, छोटे और सीमांत किसान या खेतों और फैक्ट्रियों में काम करने वाले मजदूर हैं जिनके लिए सरकारी नौकरियां पाना बिल्कुल असंभव ही है। यही नहीं, 162 पिछड़ी जातियों में मुन्नुरू कापू, मुदीराज और यादव जैसी कुछ जातियों की स्थिति, अन्य जातियों की तुलना में कहीं अधिक बेहतर है। पिछड़ी जातियों के आरक्षण को बढ़ाने का असली फायदा इन मुट्ठीभर जातियों में से बेहद छोटी-सी आबादी को होने वाला है। पिछड़ी जातियों की विशाल जनसंख्या के लिए इस बढ़ोत्तरी के कोई मायने ही नहीं हैं। उनके बच्चे भी बड़ी संख्या में हैदराबाद में आते हैं, लेकिन अच्छी शिक्षा और नौकरी के लिए नहीं बल्कि जीडीमेटला और गांधीनगर जैसे औद्योगिक क्षेत्रों में स्थित फैक्ट्रियों में हेल्पर या वर्कर का काम करने के लिए या फिर काम की तलाश में शहर के करीब 200 लेबर चौकों पर खड़े होने के लिए।
पिछड़ी जातियों में से जो लोग अपने बच्चों को प्रतियोगी परीक्षाओं की तैयारी के लिए हैदराबाद भेजने में सक्षम हैं, उस छोटे-से हिस्से को भी सरकारी नौकरी मिलने की संभावना बेहद कम है। मिसाल के लिए पिछले साल तेलंगाना में ग्रुप वन की 563 पोस्ट के लिए 4 लाख से ज्यादा लोगों ने परीक्षा दी थी, यानि हर 700 उम्मीदवारों में से महज एक को नौकरी मिलेगी। इस प्रकार पिछड़ी जातियों को मिलने वाले आरक्षण को बढ़ा देने के बाद भी अधिकांश उम्मीदवारों के लिए सरकारी नौकरी पाने की सम्भावना बेहद कम ही रहेगी और उनकी नियति बेरोजगारों की रिजर्व फौज में शामिल रहने की ही रहेगी, जिन्हें भविष्य में कम तनख्वाह और बिना सामाजिक-आर्थिक सुरक्षा वाली निजी अनौपचारिक नौकरियों के अलावा और कुछ भी नहीं मिलने वाला है।
तेलंगाना की जातिगत जनगणना को एक मॉडल के रूप में प्रस्तुत किया जा रहा है और ऐसी ही कवायद राष्ट्रीय स्तर पर किए जाने की बात की जा रही है। जिसकी जितनी संख्या भारी, उसकी उतनी हिस्सेदारी, कांशीराम के नारे की नकल करते हुए राहुल गांधी जितनी आबादी उतना हक का नारा उछाल रहे हैं। यह नारा कई स्तरों पर गुमराह करने वाला है। यह नारा उछालने वाले राहुल गांधी या उनके नकलची नारे का समर्थन करने वालों से यह पूछा जाना चाहिए कि क्या वे इस देश के संसाधनों और उत्पादन के साधनों के स्वामित्व पर भी यहां की बहुसंख्यक मेहनतकश आबादी को हिस्से के अनुसार हक दिलवाने के लिए आगे आएंगे? स्पष्ट तौर पर इसका उत्तर है, नहीं! क्योंकि राहुल गांधी और रेवंत रेड्डी जैसे लोग और उनके तमाम समर्थक यह मानकर चलते हैं कि देश के संसाधनों और उत्पादन के साधनों पर तो मुट्ठीभर पूंजीपतियों का ही हक होना चाहिए जो देश की कुल आबादी का बेहद छोटा-सा हिस्सा हैं!
अगर केवल सरकारी नौकरियों की ही बात करें तब भी ऐसी नौकरियों की संख्या बेहद कम है और नवउदारवाद के दौर में दिन-ब-दिन कम होती जा रही है। इसलिए उत्पीड़ित समुदायों में से भी अधिकांश आबादी के लिए यह लोकलुभावन नारा बेमतलब है। तेलंगाना के मामले में 162 पिछड़ी जातियों में से अधिकांश लोगों को पिछड़ी जातियों का आरक्षण बढ़ा देने के बावजूद कोई फायदा नहीं होगा। खासकर तब जबकि सरकारी नौकरियों की संख्या में कोई विचारणीय वृद्धि न हो। यही बात पूरे देश के संदर्भ में लागू होती है। इस प्रकार समानुपातिक प्रतिनिधित्व का नारा एक छलावा है जो लोगों को उनको यह समझने से रोकता है कि उनका असली दुश्मन पूंजीवादी व्यवस्था है न कि अन्य जातियों के लोग।
जातिगत जनगणना के समर्थन में एक अन्य तर्क यह दिया जा रहा है कि इससे भाजपा और संघ परिवार की हिंदुत्व की राजनीति को मात दी जा सकती है। लेकिन ऐसे लोग यह नहीं समझ पाते कि अन्य विचारधाराओं की ही तरह हिंदुत्व की विचारधारा का भी सबसे महत्वपूर्ण अंग व्यवहारवाद है। यह महज इत्तेफाक नहीं है कि भाजपा का उभार मंडल की राजनीति के साथ-साथ ही हुआ और आज भाजपा के समर्थन-आधार का अधिकांश हिस्सा पिछड़ी जातियों, दलितों और आदिवासियों के बीच से आता है। इस प्रकार मंडल 1.0 कभी भी भाजपा की हिंदुत्व की राजनीति के लिए प्रभावी चुनौती नहीं रहा लिहाजा यह मानने की कोई वजह नहीं है कि मंडल 2.0 ऐसा करने में सक्षम होगा। ऐसा तेलंगाना के ही उदाहरण से समझा जा सकता है जहां भाजपा जातिगत जनगणना का विरोध नहीं कर रही है, लेकिन मुस्लिमों में पिछड़ी जातियों को पिछड़ी जातियों की श्रेणी में शामिल करके उन्हें पिछड़ी जाति के आरक्षण का लाभ देने का खुलकर विरोध कर रही है ताकि पिछड़ी जाति के हिदुओं के बीच पिछड़ी जाति के मुस्लिमों को प्रतिद्वंद्वी के रूप में पेश किया जा सके। इस प्रकार वह जाति-आधारित पहचान की राजनीति और हिंदुत्ववादी राजनीति दोनों एक-साथ कर रही है। गौरतलब है कि तेलंगाना में हाल के वर्षों में भाजपा के वोट में इजाफे की मुख्य वजह पिछड़ी जातियों के बीच उसके समर्थन में बढ़ोत्तरी रही है। तेलंगाना में बंडी संजय कुमार और एटला राजेन्द्र जैसे भाजपा के प्रमुख नेता पिछड़ी जातियों से ही आते हैं।
अनुसूचित जाति के आरक्षण के मामले में भी भाजपा तेलंगाना में माला और मदीगा दलितों के बीच की खाई का इस्तेमाल मदीगा लोगों के बीच अपनी पैठ बनाने के लिए कर रही है। माला दलित जातियां मदीगा दलित जातियों की तुलना में बेहतर स्थिति में हैं। मदीगा जातियों के नेता अनुसूचित जाति के आरक्षण के भीतर मदीगा लोगों को आरक्षण देने के लिए मुहिम चला रहे हैं। कांग्रेस सरकार मदीगा लोगों को 9 प्रतिशत आरक्षण देने के लिए तैयार है, लेकिन सबसे लोकप्रिय मदीगा नेता मन्द कृष्ण मदीगा 11 प्रतिशत आरक्षण की मांग कर रहे हैं। मन्द कृष्ण मदीगा भाजपा का खुलकर समर्थन कर रहे हैं। तेलंगाना के पिछले विधानसभा चुनावों में उन्होंने चुनावी रैली में नरेंद्र मोदी से प्रभावित होकर उनके पांव तक छुए थे। भाजपा ने उनकी सेवा से प्रसन्न होकर उन्हें पद्मश्री की उपाधि से सम्मानित करने के साथ ही साथ अन्य भौतिक प्रोत्साहनों की भी बौछार की। ऐसे में यह मानने का कोई आधार नहीं है कि भाजपा हिंदुत्व पर अडिग रहते हुए भी जाति-आधारित पहचान की राजनीति नहीं कर सकती है।
यह समझना जरूरी है कि रेवंत रेड्डी द्वारा जातिगत जनगणना पर इतना जोर देने की वास्तविक वजह क्या है। जाहिर है कि रेवंत रेड्डी और कांग्रेस पार्टी तेलंगाना के मेहनतकशों की विशाल आबादी का कल्याण करने को कतई आतुर नहीं है। जातिगत जनगणना के पीछे की असली वजह जानने के लिए हमें दिसंबर 2023 के तेलंगाना विधानसभा चुनाव के दौर में जाना होगा। उस चुनाव में सत्तारूढ़ केसीआर नीत बीआरएस पार्टी की तगड़ी हार की मुख्य वजह बेरोजगारी के मसले पर उसका फिसड्डी प्रदर्शन था। उल्लेखनीय है कि तेलंगाना राज्य बनाने के लिए चले आंदोलन के तीन प्रमुख मुद्दे नीलू (पानी), निधूलू (कोष) और नियमकालू (बेरोजगारी) थे। हैदराबाद में आईटी सेक्टर की चकाचौंध के पीछे अक्सर यह स्याह सच्चाई छुप जाती है कि तेलंगाना में बेरोजगारी की दर देश की बेरोजगारी की औसत दर से कहीं ज्यादा है। सरकार के अपने रिकॉर्ड के अनुसार तेलंगाना में युवा बेरोजगारों की संख्या 37 लाख से ज्यादा है। कहने की जरूरत नहीं कि वास्तविक बेरोजगारों की संख्या इस सरकारी आंकड़े से कहीं ज्यादा होगी।
कांग्रेस ने अपने कार्यकाल के पहले वर्ष में ही 2 लाख नौकरियां देने और 4000 रुपए बेरोजगारी भत्ता देने का वायदा किया था। कांग्रेस को सत्ता में आए एक साल से भी ज्यादा समय बीत चुका है, फिर भी वह अब तक महज कुछ हजार नौकरियों के लिए प्रतियोगी परीक्षाएं आयोजित कर सकी है। नई सरकार द्वारा अपने वायदों से मुकरने की वजह से तेलंगाना के युवाओं में आक्रोश के पनपने की शुरुआत हो चुकी है जिसका एक उदाहरण पिछले साल अक्टूबर माह में प्रतियोगी परीक्षाओं की तैयारी करने वाले हजारों छात्रों द्वारा हैदराबाद में भीषण विरोध-प्रदर्शन के दौरान देखने में आया था। युवाओं की अपेक्षाओं को पूरा कर पाने में विफल तेलंगाना के मुख्यमंत्री रेवंत रेड्डी ने अब जातिगत जनगणना का नया शिगूफा उछाला है ताकि रोजगार के मोर्चे पर उनकी विफलता से लोगों को ध्यान भटकाया जा सके।