राष्ट्रपति के अधिकार को खुला चैलेंज
सुप्रीम कोर्ट ने लांघी हदें, देश के सर्वोच्च आसन पर उठाई उंगली
राष्ट्रपति के फैसले के खिलाफ भी सुनवाई करेगा सुप्रीम कोर्ट
राष्ट्रपति को अदालत के दायरे में खींचने का बेशर्म उदाहरण
नई दिल्ली, 12 अप्रैल (एजेंसियां)। सुप्रीम कोर्ट अपनी हदें लांघ रहा है। सुप्रीम कोर्ट की न्यायिक सक्रियता (ज्यूडिशियल एक्टिविज़्म) अब संवैधानिक दायरे बाहर जा रही है। सुप्रीम कोर्ट ने संवैधानिक मर्यादा का उल्लंघन करते हुए अब देश की सर्वोच्च संवैधानिक पीठ यानि राष्ट्रपति के आसन पर भी उंगलियां उठानी शुरू कर दी हैं। इन हरकतों से देश को अराजकता में धकेलने की कोशिशों में लगे तत्वों को बल मिल रहा है। तमिलनाडु के राज्यपाल के विधेयकों को रोकने से जुड़े एक मामले में फैसला सुनाते हुए सुप्रीम कोर्ट ने राष्ट्रपति की जेबी वीटो से जुड़ी शक्तियों को लेकर भी प्रतिकूल फैसला लेने से परहेज नहीं किया। खुदमुख्तारी दिखाते हुए सुप्रीम कोर्ट ने राष्ट्रपति के पास भेजे गए विधेयकों पर कार्रवाई के लिए समय-सीमा तय कर दी है।
सुप्रीम कोर्ट के इस फैसले के बाद देश में न्यायपालिका के सरकारी काम में हस्तक्षेप और शक्तियों के बंटवारे पर दोबारा बहस चालू हो गई है। राष्ट्रपति की शक्तियों को लेकर यह सुप्रीम कोर्ट का एक बड़ा फैसला है और इसमें समय सीमा वाली बात ने इसे और भी गंभीर बना दिया है। उल्लेखनीय है कि सुप्रीम कोर्ट ने 8 अप्रैल 2025 को तमिलनाडु डीएमके सरकार द्वारा दायर एक याचिका पर सुनवाई की। डीएमके सरकार ने यह याचिका राज्य के राज्यपाल आरएन रवि के विधेयकों को रोकने के खिलाफ लगाया था। तमिलनाडु की सरकार ने कहा कि उसके द्वारा पास किए गए विधेयकों को राज्यपाल मंजूरी नहीं दे रहे हैं।
तमिलनाडु की सरकार ने सुप्रीम कोर्ट में दलील दी कि राज्यपाल आरएन रवि ने विधानसभा द्वारा पारित किए गए 10 विधेयकों को लटका रखा है। तमिलनाडु ने बताया था कि विधानसभा में दो बार पारित किए जाने के बावजूद राज्यपाल ने इन विधेयकों को राष्ट्रपति की मंजूरी के लिए रोक रखा है। इस मामले राज्यपाल पर जेबी-वीटो का इस्तेमाल करने की बात तमिलनाडु सरकार ने कही थी। तमिलनाडु ने बताया था कि यदि ऐसा होता रहा तो कानून लटक जाएंगे और शासन चलाना मुश्किल हो जाएगा। तमिलनाडु ने इस मामले में सुप्रीम कोर्ट से मांग की थी कि वह इन विधेयकों को पारित करने सम्बन्धी कोई स्पष्ट नियम दे।
जस्टिस जेबी पारदीवाला और जस्टिस आर महादेवन की सुप्रीम कोर्ट की बेंच में इस मामले की अंतिम सुनवाई 8 अप्रैल 2025 को हुई। सुप्रीम कोर्ट ने तमिलनाडु सरकार की दलीलों को मानते हुए राज्यपाल द्वारा रोक रखे गए विधेयकों को मंजूरी दे दी। सुप्रीम कोर्ट ने इसी के साथ राज्यपालों को भेजे गए विधेयकों को लेकर समय सीमा भी तय कर दी। सुप्रीम कोर्ट ने कहा, राज्यपाल द्वारा 10 विधेयकों के संबंध में की गई सभी कार्रवाइयों को रद्द किया जाता है। राज्यपाल के समक्ष पुनः प्रस्तुत किए जाने की तिथि से ही 10 विधेयकों को मंजूरी दे दी गई मानी जाएगी। सुप्रीम कोर्ट ने इसी के साथ कहा कि राज्यपाल को विधानमंडल द्वारा भेजे गए विधेयक पर तीन महीने के भीतर फैसला लेना होगा। सुप्रीम कोर्ट ने कहा कि राज्यपाल को भेजे जाने के एक महीने के भीतर उसे राष्ट्रपति के पास भेजना होगा। इसके अलावा अगर वह विधेयक वापस लौटाना चाहता है, तो यह काम तीन महीने के भीतर करना होगा और दोबारा भेजे गए विधेयक को एक माह के भीतर मंजूरी देनी होगी।
तमिलनाडु मामले में फैसला सुनाते हुए सुप्रीम कोर्ट ने राज्यपाल की शक्तियों पर कैंची चलाई और साथ ही उसने राष्ट्रपति की शक्तियों पर भी प्रतिकूल टिप्पणियां कीं। सुप्रीम कोर्ट ने कहा, राज्यपाल द्वारा किसी विधेयक को राष्ट्रपति को भेजे जाने के तीन महीने के भीतर उस पर एक्शन लेना होगा। कोर्ट ने कहा कि इसके बाद भी विधेयक रोके जाने पर कारण बताने होगे। सुप्रीम कोर्ट ने कहा, राष्ट्रपति को राज्यपाल द्वारा विचार के लिए आरक्षित विधेयकों पर उस तारीख से तीन महीने की अवधि के भीतर निर्णय लेना आवश्यक है, जिस दिन उसे यह भेजे जाएंगे। इस समय से अधिक किसी भी देरी के मामले में उचित कारणों को दर्ज किया जाना होगा और इस मामले में सम्बन्धित राज्य को भी जानकारी देनी होगी।
सुप्रीम कोर्ट ने कहा कि राष्ट्रपति के किसी विधेयक को मंजूरी न देने की स्थिति में राज्य सरकारें अदालत का रुख कर सकती हैं। सुप्रीम कोर्ट ने यह भी कहा कि अगर राष्ट्रपति किसी कानूनी आधार पर विधेयक को रोकते हैं, तो इस संबंध में भी विधेयक की संवैधानिकता का फैसला वह सुप्रीम कोर्ट करेगा, न कि राष्ट्रपति। राष्ट्रपति के किसी विधेयक पर दिए गए फैसले को भी सुप्रीम कोर्ट सुन सकता है और फैसला पलट सकता है। सुप्रीम कोर्ट ने कहा कि जैसे राज्यपाल के पास किसी विधेयक को लम्बे समय तक लटका कर रखने के लिए शक्ति नहीं है, यही बात राष्ट्रपति पर भी लागू होती है। कोर्ट ने कहा कि राज्यपाल और राष्ट्रपति, दोनों के पास जेबी-वीटो की शक्तियां नहीं हैं। उल्लेखनीय है कि जेबी-वीटो या पॉकेट-वीटो उस शक्ति को कहा जाता है जब राष्ट्रपति या राज्यपाल अपने पास भेजे गए किसी विधेयक को लेकर कोई फैसला नहीं लेते। वह न इस पर मंजूरी देते हैं और न इसको वापस विधानमंडल को लौटाते हैं। इसके चलते वह विधेयक लंबित की श्रेणी में रहता है और क़ानून नहीं बनता।
संविधान के अनुच्छेद 201 में यह व्यवस्था की गई है कि राष्ट्रपति के समक्ष राज्यपाल द्वारा भेजे गए किसी विधेयक पर अनुकूल या प्रतिकूल निर्णय लेने का अधिकार राष्ट्रपति का है। राष्ट्रपति विधेयक विधानमंडल को वापस लौटाने की बात राज्यपाल से कह सकता है या फिर उसे मंजूर भी कर सकता है। ऐसी स्थिति में 6 माह के भीतर दोबारा विधानमंडल को राष्ट्रपति के पास अपना विधेयक भेजना होता है। वह इसे पुराने स्वरूप में ही भेज सकते हैं या बदलाव भी कर सकते हैं। दूसरे मौके पर राष्ट्रपति इस पर क्या निर्णय लेता है, इस को लेकर संविधान में समय सीमा तय नहीं है। राष्ट्रपति सिर्फ राज्यपाल द्वारा भेजे गए विधेयक ही नहीं बल्कि संसद द्वारा पारित विधेयक के संबंध में भी कर सकता है। यह कदम राष्ट्रपति रहने के दौरान ज्ञानी जैल सिंह ने उठाया था।
उन्होंने राजीव गांधी की सरकार द्वारा 1986 में पारित भारतीय डाक कानून (संशोधन) को लटका कर रखा था और मंजूरी नहीं दी थी। यह कानून उसके बाद लटका ही रहा और इसे मंजूरी नहीं मिल सकी। राष्ट्रपति के जेबी-वीटो का यह एक बड़ा उदारहण था। सुप्रीम कोर्ट के राष्ट्रपति को लेकर दिए गए इस फैसले के बाद न्यायपालिका के दखल को लेकर चर्चा चालू हो गई है। संविधान में राष्ट्रपति को देश का प्रमुख बताया गया है। आलोचकों का कहना है कि राष्ट्रपति के ऊपर समय-सीमा लगाना उसकी शक्तियों को कतरने जैसा है। इसके अलावा उसके हर निर्णय को अपनी सुनवाई के दायरे में लाने पर भी यही बात कही जा रही है।
सुप्रीम कोर्ट का राष्ट्रपति के ही निर्णय को न्यायिक दायरे में लाना इसलिए भी ज्यादा चर्चा में है, क्योंकि सुप्रीम कोर्ट में जजों की नियुक्ति भी राष्ट्रपति के हस्ताक्षर से होती है। इसी के चलते प्रश्न उठाए जा रहे हैं कि सुप्रीम कोर्ट में नियुक्तियां करने वाले राष्ट्रपति को न्यायिक दायरे में कैसे खींचा जा सकता है। इसे विशेषज्ञों ने न्यायिक दखल और कार्यपालिका पर अतिक्रमण कहा है। गौरतलब है कि संविधान में स्पष्ट तौर पर न्यायपालिका और सरकार के काम बांटे गए हैं। कई मौकों पर सुप्रीम कोर्ट ने सरकार के कामों को लेकर फैसले दिए हैं, जिससे विवाद पैदा हुआ है।
इससे पहले सुप्रीम कोर्ट ने चुनाव आयुक्तों को नियुक्त करने की प्रक्रिया में भी सुप्रीम कोर्ट के मुख्य न्यायाधीश को भी शामिल कर दिया था। इसे भी न्यायिक दखल माना गया था। 2015 में सुप्रीम कोर्ट के न्यायाधीशों की नियुक्ति के लिए पास किया गया एनजेएसी कानून भी सुप्रीम कोर्ट ने खारिज कर दिया था। आलोचक इन्हें न्यायिक दखल का उदाहरण मानते हैं। केरल के राज्यपाल राजेन्द्र आर्लेकर ने भी इस निर्णय को लेकर तीखी टिप्पणी की है। उन्होंने पूछा है कि यदि संविधान में बदलाव सुप्रीम कोर्ट कर रहा है, तो फिर विधानसभा और संसद किसलिए बनाई गई है। उन्होंने कहा कि इस मामले को एक बड़ी बेंच को भेजा जाना चाहिए था। राष्ट्रपति की शक्तियों को लेकर सुप्रीम कोर्ट के इस फैसले पर सरकार कोई एक्शन लेगी या नहीं, लोगों को इसका इंतजार है।