भारत की आंतरिक सुरक्षा पर खतरा बढ़ता ही जा रहा है...
भारत में सांप्रदायिक हिंसा के पीछे है सुनियोजित साजिश
शुभ-लाभ सरोकार
बलूचिस्तान और खैबर पख्तूनख्वा में पाकिस्तान आतंकवाद की अपनी ही खुराक से पीड़ित है। इस तरह की हिंसा पाकिस्तान में आंतरिक उथल-पुथल और उसके कम विशेषाधिकार प्राप्त नागरिकों के खुले उत्पीड़न की अभिव्यक्ति है। दूसरी ओर भारत देश में कानून और व्यवस्था की स्थिति को बिगाड़ने के षडयंत्र का शिकार बन रहा है। भारत में हर नागरिक को समान अधिकार प्राप्त है। लेकिन इसी समान अधिकार के नतीजतन सुनियोजित सांप्रदायिक हिंसा की पुनरावृत्ति राष्ट्र की आंतरिक सुरक्षा के लिए बेहद खतरनाक है।
भारत के कथित अल्पसंख्यक समुदाय मुस्लिमों की आबादी लगभग 20 करोड़ है, जो भारत की कुल आबादी का 14.3 प्रतिशत है। लेकिन नैरेटिव यह फैलाया जा रहा है कि यह कथित अल्पसंख्यक समुदाय भारत में खतरे में है। इंडोनेशिया और पाकिस्तान के बाद भारत दुनिया की तीसरी सबसे बड़ी मुस्लिम आबादी वाला देश है। इतनी बड़ी आबादी को अल्पसंख्यक कहना सर्वथा गलत और अनैतिक है, क्योंकि भारत में अल्पसंख्यक ईसाई धर्म है, जिसकी आबादी भारत की आबादी का मात्र 2.3 प्रतिशत है। इसके बाद सिख समुदाय है जो भारत की कुल आबादी का सिर्फ 1.72 प्रतिशत है। इसके बाद क्रमशः बौद्ध, जैन, पारसी और कुछ अन्य धार्मिक समुदाय हैं, जिनका प्रतिशत गिनने के लायक भी नहीं। लेकिन क्या आपने कभी भारत में ईसाई और सिखों को सांप्रदायिक दंगा करते देखा है? इसका जवाब स्पष्ट तौर पर न है।
मुस्लिम समुदाय के कट्टरपंथ और उसकी अंध-सांप्रदायिकता ने देश में अशांति को बढ़ावा दिया है। हालांकि अधिकांश मुस्लिम समुदाय शांति से रहना चाहता है, लेकिन वह बरगलाने वाले और उकसाने वाले मौलानाओं या कट्टरपंथी तत्वों के खिलाफ कुछ बोल नहीं सकते। बहुसंख्यक हिंदू समुदाय सैकड़ों साल की पराधीनता और धार्मिक अत्याचार के बाद अब जागरूक और मुखर हो रहा है। भारत के सच्चे इतिहास के ज्ञान और कुछ हिंदू शासकों के साथ किए गए अत्याचार ने भी लाखों लोगों के मानस को आंदोलित किया है। हिंदुओं को एकजुट करने का प्रयास किया जा रहा है, जो अब तक जाति के आधार पर अत्यधिक विभाजित थे। लेकिन हिंदू धर्म सहिष्णुता सिखाता है और कुल मिलाकर शांतिपूर्ण सह-अस्तित्व में विश्वास करता है। अन्यथा, बहुसंख्यक समुदाय की उदारता के बिना भारत में सभी अल्पसंख्यक समुदायों के लिए समान अधिकारों की कल्पना करना कठिन है।
चूंकि मुस्लिम समुदाय कुछ राजनीतिक दलों के लिए एक आकर्षक वोट बैंक बन गया था, इसलिए इस समुदाय को केंद्र और राज्यों दोनों में विशेष संरक्षण और समर्थन मिला। इस तरह के विशेषाधिकारों को हल्के में लिया गया और जब नई सरकार द्वारा उन पर सवाल उठाए गए, तो जाहिर है कि प्रतिक्रिया तेज और हिंसक होनी थी। समग्र उद्देश्य पीड़ित कार्ड खेलना और सुधार प्रक्रिया को पटरी से उतारना प्रतीत होता है। मुस्लिम समुदाय के सामने एक प्रमुख मुद्दा वक्फ बोर्ड की नीति की समीक्षा है। इसलिए, पिछले साल नवंबर में संभल में और अब नागपुर में इस तरह की सांप्रदायिक हिंसा को भड़काना भारत में अशांति फैलाने के लिए एक बड़े गेम प्लान का हिस्सा है। कानून और व्यवस्था राज्य पुलिस की जिम्मेदारी है, जिसे अर्धसैनिक बलों और रैपिड एक्शन फोर्स जैसे अन्य वर्दीधारी बलों द्वारा सहायता प्रदान की जाती है। पुलिस बलों के पास संख्याबल की अपनी कमी है। पुलिस ज्यादातर बहुत सारे कार्यों में प्रतिबद्ध हैं जिन्हें पुलिसिंग नहीं कहा जा सकता। पुलिस कर्मियों का एक बड़ा हिस्सा इवेंट मैनेजमेंट और वीआईपी सुरक्षा ड्यूटी में तैनात है। कानून और व्यवस्था की नई उभरती चुनौतियों से निपटने के लिए पुलिस बलों को नियमित रूप से प्रशिक्षित भी नहीं किया जाता है।
सांप्रदायिक हिंसा और दंगे पुलिस की जिम्मेवारी में सबसे कठिन काम हैं। इसलिए कभी-कभी अंतिम उपाय के रूप में नागरिक प्रशासन द्वारा कानून और व्यवस्था बहाल करने के लिए सेना की मांग की जाती है। कई बार पुलिस स्थिति को संभाल नहीं पाती है। अधिकांश सांप्रदायिक हिंसा में मुख्य समस्या कार्रवाई योग्य खुफिया जानकारी और पूर्व जानकारी का अभाव होता है। मौजूदा खुफिया तंत्र सांप्रदायिक तनाव और हिंसा को अंजाम देने के लिए हो रही तैयारी का पता लगाने में अक्सर विफल रहता है।
दूसरी ओर मुसलमानों में लाठियों, पेट्रोल बम और पत्थरों से लैस गुस्साई भीड़ जुटाने की प्रवृत्ति काफी बढ़ी है। मोबाइल फोन और सोशल मीडिया इसमें ट्रिगर का काम करते हैं। हिंसक कृत्य से पहले भीड़ के पास कुछ प्रशिक्षण और ब्रीफिंग रहती है। भीड़ में कुछ स्वयंभू नेता होते हैं जो चुने हुए इलाकों में हिंसा फैलाने के लिए भीड़ को उत्तेजित करते हैं। वे अपनी पहचान छिपाने के लिए मास्क का उपयोग करते हैं और अब सबूत नष्ट करने के लिए सीसीटीवी कैमरे भी तोड़ रहे हैं। निजी टीवी चैनल सुनिश्चित टीआरपी के लिए हिंसा का और महिमामंडन करते हैं। सुनियोजित सांप्रदायिक हिंसा को बढ़ावा देने वाले कई प्रत्यक्ष और अप्रत्यक्ष कारण हैं। दूसरी ओर पुलिस आत्म-सुरक्षा में ठीक से सुसज्जित नहीं है। ऐसे दंगों में बड़ी संख्या में पुलिसकर्मियों का घायल होना आश्चर्यजनक नहीं है। नागपुर में पुलिस ने गुस्साई भीड़ का खामियाजा अपने ऊपर उठाया और जबरदस्त संयम का परिचय दिया। आम तौर पर, ऐसी स्थिति के परिणामस्वरूप भीड़ को काबू करने के लिए पुलिस को गोली चलानी पड़ती। लेकिन इस तरह के संयम को कमजोरी माना जा सकता है और जहां आवश्यक हो, पुलिस को सख्त कार्रवाई करनी चाहिए। इसी तरह, हाल ही में बिहार में पुलिसकर्मियों की हत्या और घायल होने की घटना को गंभीरता से लिया जाना चाहिए।
भारत के आकार, विविधता और जनसंख्या वाले देश में कानून और व्यवस्था की समस्याएं अपरिहार्य हैं। हां, त्वरित पुलिस कार्रवाई से ज्यादातर मामलों में दंगों को रोका और नियंत्रित किया जा सकता है। जटिल कानून और व्यवस्था की स्थितियों से निपटने के लिए पुलिस को मजबूत, सुसज्जित और प्रशिक्षित करना होगा। उन्हें बेहतर नेतृत्व की जरूरत है जो सामने से नेतृत्व करे और जिम्मेदारी ले। आसूचना तंत्र में बडे़ पैमाने पर फेरबदल करने और विफलता की स्थिति में जिम्मेदारी निर्धारित करने की आवश्यकता है। पुलिस को भी जनता के हित में बल के रूप में जनता का विश्वास फिर से हासिल करना होगा। एक आम आदमी को अपनी चिंताओं और किसी भी जानकारी को साझा करने के लिए पुलिस से संपर्क करने में आत्मविश्वास महसूस करना चाहिए। साथ ही, पुलिस को अपने दृष्टिकोण में और अधिक पेशेवर बनना होगा। लेकिन नागरिकों को सुरक्षा के प्रति और अधिक सचेत रहना होगा। आपके पड़ोस में जो हो रहा है उसे नजरअंदाज नहीं किया जा सकता है। इस प्रकार, आंख और कान खुले रखना सुरक्षा की सबसे अच्छी गारंटी है।
शांति बनाए रखने की जिम्मेदारी राजनीतिक और धार्मिक नेतृत्व की भी है। मतभेद की स्थिति में संचार चैनल हमेशा खुले रहने चाहिए। इस संबंध में, होली के त्यौहार के दिन शुक्रवार की नमाज का समय बदलना एक-दूसरे की भावनाओं को समायोजित करने का एक अच्छा उदाहरण है। भारत एक अधिक आत्मविश्वास वाले राष्ट्र के रूप में विकसित हो रहा है। भारत विकास, लोकतंत्र, विश्वास और आध्यात्मिकता में अधिक दृढ़ हो रहा है। महाकुंभ 2025 एक नए और पुनरुत्थानशील भारत का जीता-जागता उदाहरण है। सांप्रदायिक हिंसा का सभ्य समाज में कोई स्थान नहीं है। यह भाव हिंदुओं के साथ-साथ मुसलमानों में भी होना चाहिए। मुसलमानों को भी समझना चाहिए कि वे भी सभ्य समाज का हिस्सा हो सकते हैं।