सुप्रीम कोर्ट ने ताक पर रख दिया देश का संविधान!
राष्ट्रपति के शीर्ष संवैधानिक आसन की सुप्रीम कोर्ट ने की अवमानना
सुप्रीम कोर्ट के दो जजों ने खुद को संवैधानिक पीठ समझ लिया
शुभ-लाभ चिंतन
संविधान के अनुच्छेद 168 के अनुसार, राज्य का राज्यपाल विधानमंडल का हिस्सा होता है। राज्यपाल जब किसी बिल पर सहमति देता है तब वह कानून बन जाता है। इस तरह कानून बनाने, उसे पारित करने और उस पर सहमति देने का कार्य पूरी तरह से विधायी प्रक्रिया का हिस्सा है। ऐसे में सुप्रीम कोर्ट द्वारा दिया गया निर्णय विधायी प्रक्रिया में न्यायपालिका का सीधा हस्तक्षेप है।
सुप्रीम कोर्ट ने स्वतंत्र भारत के इतिहास में पहली बार शीर्ष संवैधानिक आसन राष्ट्रपति को आदेश देने की अवमानना की है। सुप्रीम कोर्ट ने कहा कि राज्यपाल की ओर से भेजे गए बिल पर राष्ट्रपति को 3 महीने के भीतर फैसला लेना ही होगा। राष्ट्रपति के फैसले के खिलाफ भी सुप्रीम कोर्ट ने सुनवाई करने की घोषणा कर देश में विधायी अराजकता फैलाने की शुरुआत कर दी है। तमिलनाडु से जुड़े मामले में सुप्रीम कोर्ट ने कहा कि विधानसभा की ओर से भेजे गए बिल पर राज्यपाल को एक महीने के भीतर फैसला लेना होगा। और अगर वह राष्ट्रपति के पास विचार के लिए भेजा जाएगा तो राष्ट्रपति को भी तीन महीने के अंदर फैसला लेना होगा। सुप्रीम कोर्ट ने यह फैसला आठ अप्रैल को लिया और उस पर सुनियोजित रूप से विचार करने के बाद 11 अप्रैल 2025 को सार्वजनिक किया।
सुप्रीम कोर्ट के फैसले में संविधान के अनुच्छेद 201 का हवाला दिया गया है। जस्टिस जेबी पारदीवाला और जस्टिस आर महादेवन की पीठ ने इसमें कहा है, राज्यपालों द्वारा भेजे गए बिल के मामले में राष्ट्रपति के पास पूर्ण वीटो या पॉकेट वीटो का अधिकार नहीं है। राष्ट्रपति के फैसले की न्यायिक समीक्षा की जा सकती है और न्यायपालिका बिल की संवैधानिकता का फैसला करेगी। सुप्रीम कोर्ट ने कहा कि अगर राज्यपाल किसी बिल को राष्ट्रपति के पास भेजता है तो राष्ट्रपति को उस बिल को स्वीकार करना होगा, उस पर राय देकर देकर वापस भेजना होगा या फिर अस्वीकार करना होगा। यह सब कुछ तीन महीने के भीतर करना होगा। सुप्रीम कोर्ट ने यहां तक कह दिया कि राज्यपाल द्वारा भेजे गए बिल पर राष्ट्रपति को बार-बार लौटाने की प्रक्रिया भी रोकनी होगी।
सुप्रीम कोर्ट ने अपनी हदें लांघते हुए यहां तक कह दिया कि अगर राष्ट्रपति समय-सीमा के भीतर कार्रवाई करने में विफल रहते हैं तो प्रभावित राज्य सीधे अदालत का दरवाजा खटखटा सकते हैं। सुप्रीम कोर्ट ने कहा कि बिल की संवैधानिकता के मामले में कार्यपालिका को जज नहीं बनना चाहिए। ऐसे मुद्दों को अनुच्छेद 143 के तहत निर्णय के लिए सुप्रीम कोर्ट भेजना चाहिए।
सुप्रीम कोर्ट के इस फैसले के प्रसंग में देश के लोगों को यह जानना-समझना चाहिए कि सुप्रीम कोर्ट का यह निर्णय कानूनी है या गैर कानूनी। सुप्रीम कोर्ट का ताजा फैसला शीर्ष संवैधानिक आसन को चुनौती देने वाला है, लेकिन यह फैसला सुप्रीम कोर्ट की संविधान-पीठ का नहीं है। जबकि संविधान के अनुच्छेद 145 (3) में यह अनिवार्य प्रावधान है। अनुच्छेद 145 (3) में कहा गया है, संविधान की व्याख्या के संबंध में विधि के किसी सारवान प्रश्न से संबंधित किसी मामले का निर्णय करने के लिए या अनुच्छेद 143 के अंतर्गत किसी संदर्भ की सुनवाई के लिए न्यायाधीशों की न्यूनतम संख्या न्यूनतम पांच होना अनिवार्य है। इसमें कोई वैकल्पिक प्रावधान भी नहीं है, यानि इस नियम का सुप्रीम कोर्ट को पालन करना ही होगा।
सुप्रीम कोर्ट ने अपना फैसला संविधान के अनुच्छेद 200 और 201 की व्याख्या करके दिया है। जबकि विडंबना यह है कि सुप्रीम कोर्ट की यह बेंच न तो संवैधानिक थी और न ही इसमें न्यूनतम पांच जज शामिल थे। ऐसे में संविधान के अनुच्छेद 145 (3) का उल्लंघन करके सुप्रीम कोर्ट द्वारा दिया गया निर्णय वैध है या नहीं, इसे आसानी से समझा जा सकता है। सुप्रीम कोर्ट ने अपने आदेश में कहा कि कार्यपालिका को खुद जज नहीं बनना चाहिए, उसे संवैधानिक मामलों से जुड़े मामलों को अनुच्छेद 143 के तहत सुप्रीम कोर्ट भेजना चाहिए। अब ध्यान देने वाली बात ये है कि संविधान के मसलों से जुड़े ऐसे प्रश्नों को हल करने के लिए संविधान के निर्माताओं ने उसमें अनुच्छेद 145 (3) का प्रावधान किया था, ताकि उस पर विद्वान जजों की बहुमत द्वारा विश्लेषण किया जा सके।
संविधान का अनुच्छेद 143 (1) कहता है कि यदि किसी समय राष्ट्रपति को प्रतीत होता है कि विधि या तथ्य का कोई प्रश्न उत्पन्न हुआ है या उत्पन्न होने की आशंका है, जो ऐसी प्रकृति का और ऐसे महत्व का है कि उस पर उच्चतम न्यायालय की राय प्राप्त करना समीचीन होगा तो वह उस प्रश्न पर विचार करने के लिए न्यायालय को निर्देशित करेगा और वह न्यायालय, ऐसी सुनवाई के पश्चात जो वह ठीक समझता है, राष्ट्रपति को उस पर अपनी राय प्रतिवेदित करेगा। संविधान के अनुच्छेद 124 के माध्यम से सुप्रीम कोर्ट की स्थापना की गई थी। इसमें तब सुप्रीम कोर्ट के लिए एक मुख्य न्यायाधीश और इसके साथ ही 7 अन्य न्यायाधीश की बात कही गई थी। अनुच्छेद 145(3) में साफ कहा गया है कि ऐसे मामलों की सुनवाई के लिए न्यूनतम पांच जज होंगे। यानी कुल 8 जजों में से कम-से-कम 5 जज यानी कम-से-कम 62 प्रतिशत जज शामिल रहेंगे।
ताजा फरमान जारी करने वाले सुप्रीम कोर्ट के पीठ में सिर्फ दो जज थे। अब अगर अनुच्छेद 143 को ध्यान में रखें तो इसमें सुप्रीम कोर्ट के वर्तमान जजों की कुल 33 में से कम-से-कम 21 न्यायाधीश शामिल होने चाहिए थे, जो इस तरह के संवैधानिक मामले पर सुनवाई करें। इतना ही नहीं, वर्तमान निर्णय में सुप्रीम कोर्ट ने अनुच्छेद 200 और 201 में समय-सीमा का प्रावधान जोड़ा है, जो यह उसके अधिकार क्षेत्र में नहीं है। यह एक तरह से व्याख्या के रूप में संविधान का संशोधन है। जबकि संविधान संशोधन का अधिकार सिर्फ और सिर्फ विधायिका को है। भारत के संविधान में उसके अनुच्छेद 368 के तहत ही संशोधन किया जा सकता है। इसके अलावा किसी अन्य तरीके से संविधान में संशोधन का प्रावधान नहीं है। न्यायालय सिर्फ कानून का संरक्षक है, उसका निर्माता नहीं है।
संविधान के अनुच्छेद 168 के अनुसार, राज्य का राज्यपाल विधानमंडल का हिस्सा होता है। राज्यपाल जब किसी बिल पर सहमति देता है तो वह कानून बन जाता है। इस तरह, कानून बनाने, उसे पारित करने और उस पर सहमति देने का कार्य पूरी तरह से विधायी प्रक्रिया का हिस्सा है। ऐसे में सुप्रीम कोर्ट द्वारा दिया गया निर्णय विधायी प्रक्रिया में न्यायपालिका का सीधा हस्तक्षेप है। संविधान का अनुच्छेद 361 राष्ट्रपति और राज्यपालों के खिलाफ अदालती कार्यवाही से सुरक्षा प्रदान करता है। ऐसे में सुप्रीम कोर्ट उन्हें नोटिस जारी करके या अन्य तरीके से जवाब नहीं मांग सकता है। जब सुप्रीम कोर्ट उनसे जवाब नहीं मांग सकता है तो उनकी बात सुने बिना उन पर टिप्पणी करना, उन्हें आदेश और निर्देश देना प्राकृतिक न्याय के सिद्धांतों का सीधा उल्लंघन है। यह अपने आप में बहुत बड़ा सवाल है।
सुप्रीम कोर्ट का राष्ट्रपति को दिया गया निर्देश लोकतंत्र के लिए अत्यंत आश्चर्यजनक, दुखद और शर्मनाक है। भारत संघ का प्रमुख राष्ट्रपति होता है। संविधान का अनुच्छेद 79 कहता है कि संघ (भारत) के लिए एक संसद होगी, जो राष्ट्रपति और दो सदनों से मिलकर बनेगी, जिनके नाम लोकसभा और राज्यसभा होंगे। देश का शासन भी राष्ट्रपति के नाम से प्रधानमंत्री द्वारा संचालित होता है, जिसका एक हिस्सा न्यायपालिका है। सुप्रीम कोर्ट के सभी न्यायाधीशों की नियुक्ति राष्ट्रपति द्वारा होती है। अनुच्छेद 124 (2) के अनुसार, राष्ट्रपति अपनी मुद्रा और हस्ताक्षर सहित अधिपत्र द्वारा उच्चतम न्यायालय के प्रत्येक न्यायाधीश को नियुक्त करेगा।
नियुक्ति ही नहीं, बल्कि महाभियोग के बाद जजों का निष्कासन या फिर पद से त्याग-पत्र भी राष्ट्रपति के नाम से होता है। संविधान के अनुच्छेद 124(2)(क) के अनुसार, कोई भी न्यायाधीश राष्ट्रपति को संबोधित अपने हस्ताक्षर सहित लेख द्वारा अपना पद त्याग सकेगा। ऐसे में भारत संघ के प्रमुख के मांगने पर सुप्रीम कोर्ट सलाह दे सकता है, लेकिन निर्देश नहीं दे सकता है। जिस सुप्रीम कोर्ट में किसी व्यक्ति को मृत्युदंड जैसी सजा दी जाती है, उस सजा को क्षमा करने का अधिकार राष्ट्रपति को है। संविधान का अनुच्छेद 72(2) इसका प्रावधान करता है। इस अनुच्छेद के अनुसार, राष्ट्रपति को किसी अपराध में दोषसिद्ध ठहराए गए किसी व्यक्ति के दंड को क्षमा, उसका प्रविलंबन, विराम या परिहार करने की अथवा दंडादेश के निलंबन कर सकता है। इतना ही नहीं, संविधान के अनुच्छेद 361 के तहत राष्ट्रपति तो दूर की बात है, राज्यपाल तक पर कार्रवाई नहीं हो सकती है। राष्ट्रपति इस देश के शासन का प्रमुख ही नहीं होता, जिसका एक हिस्सा न्यायपालिका भी है, बल्कि वह सेना का सर्वोच्च कमांडर भी होता है। सैन्य निर्णयों के मामलों को संविधान के अनुसार चुनौती नहीं दी जा सकती है।
संविधान के अनुच्छेद 136(2) के अनुसार, सशस्त्र बलों से संबंधित किसी विधि द्वारा या उसके अधीन गठित किसी न्यायालय या अधिकरण द्वारा पारित किए गए या दिए गए किसी निर्णय, अवधारणा, निर्णय, दंडा