सुप्रीम कोर्ट को मस्जिदों के कागज की फिक्र, मंदिरों से मांगते हैं सबूत!
लोकतंत्र ध्वस्त करने पर आमादा सुप्रीम कोर्ट, जनता पूछ रही है सवाल
वक्फ बाई यूजर ठीक तो मंदिर बाई यूजर और गुरुद्वारा बाई यूजर क्यों नहीं?
शुभ-लाभ विमर्श
सुप्रीम कोर्ट के न्यायिक चरित्र का दोगलापन देश के आम लोगों को अब नागवार लग रहा है। अब देश के कोने-कोने से यह आवाज उठने लगी है कि न्यायालयों की अराजकता, भ्रष्टाचार और अनैतिकता पर अंकुश लगाने का कोई कारगर सिस्टम बनना चाहिए। अगर ऐसा नहीं हुआ तो देश में हिंसा, दंगा और लूटमार न्यायालयों के दोगलेपन के चलते होंगे। समाज के विभिन्न हिस्सों से कई सवाल सामने आ रहे हैं। वक्फ बोर्ड के खिलाफ याचिकाएं दाखिल करने से साफ-साफ इन्कार करने वाली सुप्रीम कोर्ट ने वक्फ कानून के खिलाफ याचिकाएं क्यों दाखिल कर ली? जबकि यह पूरे देश को पता है कि वक्फ कानून लोकसभा और राज्यसभा दोनों सदनों से पारित हुआ था? सुप्रीम कोर्ट भारत की लोकतांत्रिक व्यवस्था को ध्वस्त करने पर क्यों तुली हुई है? अयोध्या और राम के जन्म का प्रमाण मांगने वाली अदालतें वक्फ पर खुद ही रुदालियां करने लगती हैं कि 15 सौ साल पुरानी मस्जिद का कागज वे कहां से लाएं? अदालत राम मंदिर के लिए सबूत मांगेगी और वक्फ के लिए कहेगी कि ये बेचारे कागज कहां से दिखाएंगे? अगर वक्फ बाई यूजर जैसा कोई प्रावधान हो सकता है, तो फिर मंदिर बाई यूजर और गुरुद्वारा बाई यूजर जैसा प्रावधान क्यों नहीं हो सकता? इस तरह के कई गंभीर सवालों से सुप्रीम कोर्ट और देश की तमाम अदालतें घिर गई हैं। न्यायालय की साख और प्रतिष्ठा अब पुलिसिया चरित्र से भी नीचे देखी जाने लगी है। अदालतों द्वारा खुद की हिफाजत के लिए तय किए गए सख्त प्रावधान के कारण कोई मुखर नहीं होता, यह बात अलग है।
अजीबोगरीब बात है कि वक्फ के मामले में सुप्रीम कोर्ट के मुख्य न्यायाधीश संजीव खन्ना कहते हैं, कई ऐसी मस्जिदें हैं जो 14वीं-15वीं शताब्दी में बनी हुई हैं, ऐसे में वो दस्तावेज कहां से दिखाएंगे क्योंकि अंग्रेजी राज से पहले रजिस्ट्रेशन की कोई प्रक्रिया ही नहीं थी? कैसी विडम्बना और चारित्रिक विरोधाभास है, यह देखिए। अयोध्या में श्रीराम की जन्मभूमि पर एक अदद मंदिर के लिए हिंदुओं को 134 वर्षों तक कोर्ट में लड़ाई लड़नी पड़ी। कागज दिखाने की ही तो लड़ाई थी, स्वामित्व साबित करने के लिए। क्या अब काशी, मथुरा, भद्रकाली, भोजशाला और अटाला पर भी सुप्रीम कोर्ट कागज नहीं मांगेगी? क्योंकि उस समय रजिस्ट्रेशन की व्यवस्था नहीं थी?
यह वही सुप्रीम कोर्ट है जिसने कृषि कानूनों पर सुनवाई के बिना ही अंतरिम रोक लगा दी थी। इससे दिल्ली को घेरे अराजक प्रदर्शनकारियों के बीच यह संदेश गया था कि भीड़तंत्र का डर दिखाकर कोई भी अपनी बात मनवा सकता है। एक तरफ आप राम मंदिर के लिए कहते हैं कि सबूत लाओ और दूसरी तरफ वक्फ के लिए कहते हैं कि ये बेचारे कागज कहां से दिखाएंगे, यह दोगलापन कैसे चल सकता है? और अगर वक्फ बाई यूजर नामक कोई प्रावधान हो सकता है, फिर मंदिर बाई यूजर और गुरुद्वारा बाई यूजर जैसा कोई प्रावधान क्यों नहीं हो सकता? कल को गांव के गांव वक्फ बाई यूजर हो जाएंगे, क्योंकि कश्मीर में तो हिंदुओं को पलायन के लिए मजबूर किया गया तो वहां कौन देखने गया किसकी सम्पत्ति का क्या इस्तेमाल हुआ? पश्चिम बंगाल के मुर्शिदाबाद में भी आज वही हो रहा है। बड़ी अजीब बात है कि एक तरफ एक गिरोह को सड़क पर दंगे करने से लेकर किसी भी सम्पत्ति को अपना बताने तक का अधिकार है। दूसरी तरफ अपने आराध्यों के मंदिर में पूजा के अधिकार के लिए एक वर्ग दशकों तक कोर्ट में दौड़ता है। एक तरफ फंडिंग और रसूख है, दूसरी तरफ इस देश को अपना मानने वाले लोग हैं जो संविधान से ऊपर शरीयत को नहीं रखते।
देश के उप-राष्ट्रपति जगदीप धनखड़ ने न्यायपालिका की गिरती हुई साख का जिक्र करते करते हुए कहा है कि सुप्रीम कोर्ट सुपर संसद बनने की कोशिश न करे। सुप्रीम कोर्ट कानून नहीं बना सकती। यह काम संसद का है जो जनता के प्रति जवाबदेह है। संसद के दोनों सदनों से पारित होकर और राष्ट्रपति के हस्ताक्षर के बाद वक्फ संशोधन अधिनियम कानून बना। अब सुप्रीम कोर्ट में इसके खिलाफ कई याचिकाएं पहुंच गईं। अब सुप्रीम कोर्ट ने इसपर सुनवाई भी शुरू कर दी, जैसे कि सुप्रीम कोर्ट संसद से ऊपर हो। हां, भारतीय लोकतंत्र में राष्ट्रपति के शीर्ष आसन पर उंगली उठाने के बाद मद में आए सुप्रीम कोर्ट ने खुद को संसद के ऊपर समझ लिया हो तो कोई आश्चर्य की बात नहीं। जिस कानून को पूरी संसद ने पारित किया उस पर सरकार को सुप्रीम कोर्ट के बेमानी सवालों के जवाब देने पड़ रहे हैं। अब तक देश के सभी सांसदों को सुप्रीम कोर्ट के सामने धरना पर बैठ जाना चाहिए था। अब तय हो ही जाना चाहिए कि देश विधायिका से चलेगा या सुप्रीम कोर्ट से।
मोदी सरकार भी फिसड्डी ही साबित हो रही है। आप याद करिए तब सोमनाथ चटर्जी लोकसभा के अध्यक्ष हुआ करते थे। उस समय भी इसी तरह सुप्रीम कोर्ट ने लोकसभा को अपने अरदब में लाने की कोशिश की थी। इस पर लोकसभा अध्यक्ष ने सुप्रीम कोर्ट को सख्त चेतावनी दी थी कि वह अपनी हद में रहे। लेकिन संसद से पारित होने के बाद भी नरेंद्र मोदी की सरकार सुप्रीम कोर्ट के हड़काने पर सफाई देने लग जाती है। सरकार के सीधे स्टैंड लेना चाहिए कि संसद से पारित हुए विधेयकों पर सरकार सुप्रीम कोर्ट के समक्ष कोई भी जवाब देने के लिए जिम्मेदार नहीं है। लेकिन यह लोकतांत्रिक नैतिक बल है ही नहीं सरकार के पास। अनुच्छेद-370 और 35-ए निरस्त किए जाने का मामला हो या फिर वक्फ संशोधन कानून पारित होने का मामला, बार-बार सुप्रीम कोर्ट संसद से पारित विधेयकों पर याचिका दाखिल कर लेती है और पंच बन कर बैठ जाती है। जैसे उसके पास और कोई काम ही नहीं हो। अनुच्छेद 370 हो या वक्फ विधेयक, इसका संसद से पारित होना लोकतंत्र में एक उदाहरण की तरह दर्ज होना चाहिए था, उसे सुप्रीम कोर्ट दुनिया के सामने ऐसे पेश कर रही है कि जैसे मुसलमानों की अकेली हित-धारक सुप्रीम कोर्ट ही है।
जबकि पूरा देश जानता है कि वक्फ संशोधन विधेयक को संसद में पेश किए जाने के बाद इसे संयुक्त संसदीय समिति (जेपीसी) के समक्ष भेजा गया था। इसमें शामिल पक्ष-विपक्ष के 21 लोकसभा और 10 राज्यसभा सांसदों ने 36 बैठकें की। इतना ही नहीं, 10 शहरों में जाकर जमीनी स्थिति भी देखी गई। कुल 284 हितधारकों से उनके सुझाव लिए गए। 25 राज्यों के वक्फ बोर्डों के प्रतिनिधियों से सुझाव लिए गए। लोकसभा में 12 घंटे की चर्चा के बाद रात के 2 बजे बिल पारित कराया गया। जिसे एक उदाहरण के रूप में लिया जाना चाहिए था, न्यायपालिका उसकी छीछालेदर करने में लगी है। स्पष्ट है कि सुप्रीम कोर्ट उन सारी लोकतांत्रिक प्रक्रियाओं और उनमें शामिल जन-प्रतिनिधियों को तुच्छ मानती है और खुद को सर्वश्रेष्ठ।
काशी-मथुरा से लेकर हिंदुओं से जुड़े तमाम विषयों पर विभिन्न अदालतों में हिंदुओं का पक्ष रखने वाले अधिवक्ता विष्णु शंकर जैन ने सुप्रीम कोर्ट के इस बेजा दोहरे रवैये पर सवाल उठाए हैं। उन्होंने कहा कि वक्फ बोर्ड को लेकर जब वो सुप्रीम कोर्ट में याचिका लेकर गए थे तब उनसे पूछा गया था कि सीधे सुप्रीम कोर्ट क्यों आ गए, हाईकोर्ट क्यों नहीं गए, उन्हें पहले हाईकोर्ट जाना चाहिए था। जैन ने बताया कि 7 साल से अतदि महत्वपूर्ण सामाजिक मसलों से जुड़ी 140 से अधिक याचिकाओं को लेकर वे अलग-अलग अदालतों में संघर्ष कर रहे हैं, लेकिन आज तक उनमें कोई अंतरिम राहत नहीं मिली। और वक्फ कानून के खिलाफ फौरन याचिकाएं स्वीकार कर ली जाती हैं?
विष्णु शंकर जैन ने पूछा कि आखिर क्या कारण है कि एक पक्ष सुप्रीम कोर्ट जाता है तो तुरंत उसकी याचिका स्वीकार कर ली जाती है और पुचकार कर अंतरिम राहत देने की बात भी की जाती है, जबकि दूसरे पक्ष के लिए यह व्यवहार लागू नहीं होता। अधिवक्ता ने कहा कि पिछले 13 वर्षों से 4 राज्यों में एंडोमेंट एक्ट के जरिए मंदिरों पर कब्जा किए जाने के विरुद्ध सुनवाई चल रही है, हाल ही में फैसला भी आया है जिसमें सारे मुद्दों को हाईकोर्ट में भेज दिया गया है। विष्णु शंकर जैन ने कहा कि ये सारे सवाल वक्फ मामले में क्यों नहीं किए जा रहे हैं?
गुरुवार 17 अप्रैल को सुप्रीम कोर्ट में सुनवाई शुरू होने से पहले विष्णु शंकर जैन ने मीडिया के समक्ष ये सवाल पूछे थे। उन्होंने सलाह दी थी कि सारे मामलों को एक हाईकोर्ट में भेजकर एक संवैधानिक पीठ बनाई जाए और इसकी सुनवाई हो। वरिष्ठ अधिवक्ता विष्णु शंकर जैन का सवाल जायज है। आखिर एआईएमआईएम, अमानतुल्लाह खान, जमीयत और कई विपक्षी राजनीतिक दलों की याचिकाएं सीधे सुप्रीम कोर्ट में कैसे स्वीकार कर ली जाती हैं? जबकि हिंदुओं को अयोध्या से लेकर काशी-मथुरा तक के लिए जिले की कचहरियों से होकर गुजरना पड़ता है और सदियों लग जाते हैं।
अबतक वक्फ मामले में सुप्रीम कोर्ट ने लगातार दो दिन सुनवाई की है। जबकि आप देखिए, काशी में ज्ञानवापी के सर्वे में भी निकला कि ये हिंदू मंदिर था। उसकी दीवारें चीख-चीख कर कहती हैं कि ये मंदिर है। क्या वहां किसी प्रकार की रोक लगाई गई? क्या मथुरा में श्रीकृष्ण जन्मभूमि मंदिर को ध्वस्त करके बने शाही ईदगाह मस्जिद के संबंध में ऐसा कोई निर्णय आया? मध्य प्रदेश स्थित भोजशाला मंदिर को लेकर कोई स्टे आया? मुस्लिमों को नहीं भी नहीं रोका गया, फिर बार-बार मोदी सरकार के कानूनों पर स्टे क्यों?
गांव के गांव को वक्फ सम्पत्ति बताकर छीन लिया गया। तमिलनाडु में तिरुचेंदुराई गांव में 1500 वर्ष पुराने मंदिर को वक्फ ने अपना बता दिया। डेढ़ हजार वर्ष पूर्व इस्लाम था ही नहीं। हाल ही में तमिलनाडु के वेल्लोर स्थित कट्टुकोल्लै गांव में 150 परिवारों की कृषि वाली भूमि को दरगाह की जमीन बताकर वक्फ ने नोटिस थमा दिया। यह सुप्रीम कोर्ट को क्यों नहीं दिखता? सुप्रीम कोर्ट के इस रवैये के पीछे कोई संदेहास्पद मसला है, जिसकी बेहद सूक्ष्मता से पड़ताल होनी चाहिए।