टीएमसी के लिए मुश्किलें खड़ी करेगा सत्ता पोषित दंगा
रही सही कसर पूरी करेगा शिक्षक भर्ती घोटाला
कोलकाता, 16 अप्रैल (एजेंसियां)। पश्चिम बंगाल की राजनीति में झटकों और मोड़ों की कोई कमी नहीं रहती है। सत्तारूढ़ तृणमूल कांग्रेस (टीएमसी) अपनी करतूतों की वजह से इन्हीं झटकों और खतरनाक मोड़ों से गुजरने वाली है। टीएमसी का मुस्लिम ध्रुवीकरण का खेल, प्रायोजित दंगा-फसाद, उच्चस्तरीय भ्रष्टाचार और चुनावी हिंसा में टीएमसी की हिस्सेदारी उसे क्रमशः आम नागरिकों के मन से दूर करती जा रही है। बंगाल की धरती का इतिहास रहा है कि जब किसी चीज की अति होने लगती है तो बंगाल के लोग आमूल-चूल परिवर्तन कर देते हैं। पूरी सत्ता बदल देते हैं और एक नए दौर का प्रारंभ करते हैं। बंगाल से कांग्रेस का पटाक्षेप, वाम का आगमन और लंबे कालखंड के बाद उसकी विदाई, फिर टीएमसी का सत्ताग्रहण और अब उसकी भी विदाई की तैयार हो रही भूमिका हमें बंगाल के लोगों के मूल चरित्र की याद दिलाने लगी है।
ममता के राज में पश्चिम बंगाल में अब कुछ भी सही नहीं चल रहा है। बात अगर सिर्फ हाल के दिनों की करें तो शिक्षा भर्ती घोटाला, टीएमसी के अंदर जारी अंदरूनी लड़ाई और अब वक्फ कानून के खिलाफ सड़कों पर होती सत्ता पोषित सांप्रदायिक हिंसा से साफ संकेत मिल रहे हैं कि ममता बनर्जी की पकड़ अब बंगाल में कमजोर हो रही है। बंगाल के विधानसभा चुनाव से एक साल पहले ही ममता के खिलाफ माहौल बनता हुआ साफ-साफ दिख रहा है, आक्रोश की एक लहर बड़े वर्ग में साफ दिखाई दे रही है।
शिक्षक भर्ती घोटाले में जिस तरह से ममता सरकार की किरकिरी हुई है, वह टीएमसी की मुश्किलें बढ़ाने वाली है। सुप्रीम कोर्ट की इस मामले में टिप्पणियां भी सीएम ममता की लोकप्रियता को चोट पहुंचाती हैं। जिस तरीके से सीधे-सीधे 26 हजार शिक्षकों की नौकरी गई है, इसने बंगाल की टीएमसी सरकार पर दबाव बढ़ा दिया है। यहां पर समझने वाली बात यह है कि विवाद सिर्फ इन 26 हजार शिक्षकों का नहीं है, ज्यादा बड़ी बात यह है कि इन 26 हजार शिक्षकों पर उनका पूरा परिवार निर्भर करता है, ऐसे में बंगाल का एक काफी बड़ा वर्ग इस समय आक्रोशित चल रहा है। किसी के भ्रष्टाचार की कीमत जब किसी निर्दोष को चुकानी पड़े तो खतरे की घंटी नेता और उस पार्टी के लिए ही होती है।
एसएससी स्कैम पश्चिम बंगाल स्कूल सेवा आयोग (एसएससी) की ओर से आयोजित 2016 की भर्ती प्रक्रिया में अनियमितता से जुड़ा हुआ है। नियुक्तियों में बड़े पैमाने पर धांधली हुई। ऊपर से लेकर नीचे तक कई स्तर पर भ्रष्टाचार हुआ। पक्षपात के जरिए करीबियों को नौकरियां दी गईं। यहां भी सबड़े बड़ा खेल मेरिट लिस्ट में हुआ जिसमें कम अंक वालों को नौकरी मिली और ज्यादा अंक वालों को नहीं। साल 2022 में इस केस में सीबीआई की एंट्री हुई और ममता के करीबी पार्थ चटर्जी से पूछताछ शुरू हुई।
पार्थ चटर्जी 2014 से 2021 तक बंगाल के शिक्षा मंत्री रहे, उन पर भी आरोप लगा कि उन्होंने इस पूरे मंत्रालय को ही अपने कब्जे में रखा और मनमुताबिक नियुक्तियां कीं। इसके ऊपर उनके करीबी अर्पिता मुखर्जी के आवास पर जब नोटों का बंडल मिला, उसने मुख्यमंत्री ममता की किरकिरी और ज्यादा करवा दी। अब इस मामले में जब सुप्रीम कोर्ट ने भी राज्य सरकार को कठघरे में खड़ा किया है, मुख्यमंत्री ममता बनर्जी की इमेज को सीधी चोट लगी है। इसके ऊपर शारदा चिट फंड घोटाला, नारदा स्टिंग कुछ और ऐसे विवाद हैं जहां सीधे और गंभीर सवाल ममता सरकार को लेकर ही उठे हैं।
उनके लिए ज्यादा परेशानी का सबब यह है कि ऐसी चुनौती तब आई है जब उन्हें बंगाल के आगामी विधानसभा चुनाव की तैयारियों में लगना है। किसी भी राज्य में भ्रष्टाचार और उसके खिलाफ पैदा हुए आक्रोशित को छोटा कर नहीं आका जा सकता। हाल ही में दिल्ली चुनाव के दौरान भी आप संयोजक अरविंद केजरीवाल कथित शराब घोटाले को नजरअंदाज करते रहे, खुद को तो निर्दोष बताया ही, जनता के गुस्से को भी नहीं समझ पाए। लेकिन जब नतीजे आए, खुद अपनी सीट गंवा बैठे और आम आदमी पार्टी की भी करारी हार हुई। ऐसे में ममता बनर्जी के लिए शिक्षा भर्ती घोटाला एक बड़ी चुनौती बनने वाला है। उनके लिए चुनौती भाजपा के लिए उतनी बड़ा ही अवसर भी रहने वाला है।
मुख्यमंत्री ममता बनर्जी और टीएमसी की प्रमुख के लिए एक चुनौती अपनी खुद की पार्टी को संभालना भी बन गया है। पहले ऐसा कहा जाता था कि ममता का अपनी पार्टी पर पूरा कंट्रोल है, उनका सख्त अंदाज ऐसा रहता कि कार्यकर्ता भी उनसे सहम जाते थे। कई बार तो पब्लिक में जिस तरह से उन्होंने अपने ही पार्टी कार्यकर्ताओं को फटकार लगाई, वो देखते ही बनता था। लेकिन ये सारी बातें अब पुरानी हो चुकी हैं, अब की टीएमसी अंदरूनी झगड़ों से जूझ रही है, खुद ममता बनर्जी स्थिति को कंट्रोल में नहीं कर पा रही हैं। कई मामलों में उनकी चुप्पी ने भी ऐसे विवादों को और ज्यादा हवा देने का काम किया है।
हाल ही में महुआ मोइत्रा और कल्याण बनर्जी के बीच हुई तू-तू मैं-मैं ने सोशल मीडिया पर खूब सुर्खियां बटोरी थीं। असल में भाजपा ने ही व्हाइट्स ऐप चैट्स शेयर कर दावा किया था कि पार्टी के दो दिग्गज नेताओं के बीच में खूब नोकझोंक हुई। लड़ाई की शुरुआत कल्याण बनर्जी और कीर्ति आजाद की बहस से हुई और बाद में उसमें महुआ की भी एंट्री हुई। बाद में टीएमसी नेता सौगत राय ने ही दावा किया कि उन्होंने महुआ को रोते हुए देखा। उनकी तरफ से कल्याण बनर्जी को उनके पद से हटाने की बात तक कही गई। अब किसी पार्टी की कलह अगर सोशल मीडिया पर वायरल हो जाए, परसेप्शन बनने में देर नहीं लगती। वैसे भी भाजपा को लेकर तो जानकार मानते हैं कि सोशल मीडिया हैंडल करने में वो एक्सपर्ट हैं, ऐसे में यह विवाद कब ज्यादा तूल पकड़ ले, पता भी नहीं चलेगा।
आरजी कर अस्पताल रेप केस का उदाहरण भी यहां समझना चाहिए। जिस तरह से डॉक्टर सड़कों पर उतरे थे, मुख्यमंत्री ममता बनर्जी के खिलाफ ही नारेबाजी हुई थी, बाद में भतीजे अभिषेक बनर्जी के नाराज होने की खबरें आई थीं। इस सब ने भी टीएमसी में ओल्ड बनाम यंग गार्ड की लड़ाई को बढ़ा दिया था। इस समय जिस तरीके से टीएमसी में एक धड़ा पूरी तरह अभिषेक बनर्जी को पसंद कर रहा है और मॉर्डन बदलावों की पैरवी कर रहा है, दूसरा धड़ा ममता के वफादारों का है जो अभिषेक और उनके समर्थकों को नकार रहा है। उनकी सोच को टीएमसी की विचारधारा के खिलाफ मान रहा है।
लेकिन यहां पर भी चुनौती ममता बनर्जी के लिए ही है, पार्टी का गुटों में बंटना, नेताओं की आपसी कलह का तूल पकड़ना चुनावी मौसम में आक्रोश की पिच तैयार करता है। सीएम ममता ने कहा जरूर है कि ऐसे बयान देने से बचना चाहिए, लेकिन उनका अंदाज अब उतना सख्त दिखाई नहीं पड़ता। यह नहीं भूलना चाहिए कि हरियाणा चुनाव के दौरान कांग्रेस को जीती हुई बाजी अंदरूनी कलह की वजह से गंवानी पड़ी थी। तब कुमारी शैलजा और भूपेंद्र हुड्डा के समर्थकों के बीच में जारी तनाव ने पार्टी की खूब किरकिरी करवाई थी। छत्तीसगढ़ के चुनाव को भी याद करना चाहिए जब कांग्रेस ने टीएस सिंहदेव और भूपेश बघेल के बीच में तनाव की वजह से इलेक्शन हारा था। ऐसे में अंदरूनी कलह हार की वजह बनती हैं और सीएम ममता को भी यह याद रखना होगा।
पश्चिम बंगाल की राजनीति में हिंसा एक ऐसा अध्याय है जो कई दशकों से जारी है। सरकार चाहे कभी कांग्रेस की हो, चाहे भी लेफ्ट की रही हो या फिर अब टीएमसी की, हिंसा न रुकी है और ना ही रोकने की कोशिश हुई है। पश्चिम बंगाल में इस समय मुर्शिदाबाद में तनाव है, वक्फ कानून के खिलाफ हिंसा हो रही है। हैरानी इस बात की है कि बंगाल पुलिस समय रहते इस बवाल को नहीं रोक पाई, हैरानी इस बात की भी है कि मुख्यमंत्री ममता बनर्जी ने वक्फ कानून के खिलाफ तो बोला, लेकिन हिंसा कैसे रुके, इसे लेकर कुछ नहीं बोला। उन्होंने हिंसा करने वालों को भी फटकार नहीं लगाई है।
अब ममता के खिलाफ कुछ आंकड़े भी जाते हैं जो बताने के लिए काफी है कि बंगाल में कानून व्यवस्था उनके कार्यकाल में और ज्यादा बिगड़ी है। एक आरटीआई के जवाब में पता चला कि जनवरी 2021 से जून 2022 के बीच में राज्य में सांप्रदायिक हिंसा के 65 मामले सामने आए थे। यहां भी 2022 में 35 केस दर्ज किए गए थे। इसके अलावा बंगाल में महिलाओं के खिलाफ अत्याचार बढ़े हैं, एनसीआरबी के ही आंकड़े बता रहे हैं कि 2022 में पतियों द्वारा पत्नी के खिलाफ क्रूरता के मामलों में चिंताजनक इजाफा हुआ है, पश्चिम बंगाल में प्रति लाख जनसंख्या पर अपराध दर 40.6 रही है।
अब बंगाल की इस हिंसा के जानकार एक नहीं कई कारण मानते हैं। कई तो ये भी कहते हैं कि बंगाल में हो रही इस हिंसा की कोई विचारधारा नहीं है। शिक्षा का स्तर कम है, बेरोजगारी ज्यादा है, गरीबी से लोग परेशान हैं, ऐसे में जहां से पैसा आता है, लोग उनके लिए काम करने लग जाते हैं। ये सोचने वाली बात है कि अचानक से सड़क पर इतने लोग कैसे आ जाते हैं, आखिर क्यों वो पत्थर उठा लेते हैं? बताया जाता है कि इन प्रदर्शन में शामिल कई लोग प्लांटेड भी हो सकते हैं जिन्हें पैसे देकर बुलाया जाता हो। ऐसे में अगर गरीबी को खत्म किया जाए, नौकरियों के नए अवसर बनें, तो आने वाले सालों में बंगाल हिंसा के इस खतरनाक दंश से खुद को मुक्त कर सकता है।
अभी के लिए इस हिंसा को कोई रोकना नहीं चाहता है, प्रमुख विपक्षी दल भाजपा को भी आपदा में अवसर दिखाई दे रहा है। ममता के खिलाफ पैदा हो रहा यह आक्रोश ही भाजपा को अपनी सत्ता वापसी का एक मौका दिखाई देता है। इसी वजह से पार्टी हिंदुत्व की लाइन पर और ज्यादा मजबूती से आगे बढ़ रही है, संघ का साथ भी उसे पूरा मिला रहा है। इसके ऊपर तुष्टिकरण के आरोप लगा बड़े स्तर पर ध्रुवीकरण का प्रयास भी दिखाई दे रहा है।