नेताओं से साठगांठ कर पानी पर कब्जा जमा रहे माफिया
प्लास्टिक, पानी और सियासी माफिया के खिलाफ 'शुभ-लाभ' का अभियान
सरकारी सिस्टम तबाह कर चुके हैदराबाद और बेंगलुरु के पानी माफिया
प्लास्टिक, पानी और सियासी माफिया सरकारों के साथ मिलकर पानी पर नियंत्रण करते जा रहे हैं। इन गिरोहों ने पानी को भारी कमाई का जरिया बना डाला है। भारत में यह कारोबार तेजी से फैल रहा है। इन्हीं की वजह से प्लास्टिक माफिया भी शहर दर शहर को आक्रांत करते चले जा रहे हैं। तमाम नदियों से लेकर भूगर्भ जल तक उनका वर्चस्व बढ़ चुका है। वह नदियों को साफ नहीं रहने देते, वह लोगों में जागरूकता नहीं आने देते, वही हैं जो चाहते हैं प्रत्येक नदी को बांध दिया जाए और प्रत्येक जल धारा में नदी खनन हो, यह साजिश तब और गहरी हो जाती है जब लोगों को साफ पानी से वंचित कर उनको दूध से महंगा पानी खरीदने को मजबूर किया जाने लगता है।
भारत के महानगरों और शहरों में पानी माफियाओं के निजी टैंकरों का बढ़ता दबदबा देश की जल आपूर्ति प्रणाली में मूलभूत चुनौतियों को रेखांकित करता है। कतार लगे टैंकरों के लिए प्रत्येक बोरवेल रोजाना 20,000 से 30,000 लीटर भूजल की निकासी करता है। भारत के शहरी क्षेत्रों में रहने वाले करीब 38 प्रतिशत लोगों को पाइप के जरिए पानी की सुविधा हासिल नहीं है। यह एक ऐसी समस्या है जो हर साल गर्मियों में विकराल हो जाती है।
हैदराबाद और बेंगलुरु के लिए टैंकर माफिया पानी के प्राथमिक स्रोत बन चुके हैं। शहर का दौरा करें तो घर घर में खुदे निजी बोरवेल से पानी निकालते कई टैंकर नजर आएंगे। जिनमें से कुछ 24,000 लीटर क्षमता के मिलेंगे। वहां के निवासी खुद बताते हैं कि यह बोरवेल प्रतिदिन 20 घंटे चलता है और इससे पानी की निकासी करने वाले टैंकर हैदराबाद और बेंगलुरु की सीमा पर बसी कॉलोनियों के साथ-साथ दूरदराज के इलाकों तक पानी की आपूर्ति करते हैं। हर साल गर्मी का मौसम आते ही हैदराबाद और बेंगलुरु के विभिन्न इलाकों में निजी टैंकरों से पानी लेने के लिए हाथों में बाल्टी और डिब्बे लिए घंटों इंतजार करते लोगों की लंबी-लंबी कतारें दिखने लगती हैं। नगर निगम और जल बोर्ड से पूछें तो वे बताएंगे कि 90 प्रतिशत घरों में पाइपलाइन से जलापूर्ति होती है। लेकिन क्या वास्तव में ऐसा होता है? अगर ऐसा होता तो पानी माफिया, टैंकर माफिया और प्लास्टिक माफिया चांदी कैसे काटते?
चैलेंजेज इन अर्बन वाटर गवर्नेंस: इनफॉर्मल वाटर टैंकर सप्लाई इन चेन्नई एंड मुंबई शीर्षक से 2023 में प्रकाशित अध्ययन के अनुसार, मुंबई के 55 प्रतिशत प्रतिभागी अनियमित आपूर्ति, खराब गुणवत्ता और ऊंची लागत के चलते पानी की आपूर्ति से संतुष्ट नहीं हैं। नतीजतन इनमें से 52 प्रतिशत लोग पानी की आपूर्ति के लिए टैंकरों पर निर्भर रहते हैं। इसी अध्ययन से पता चला कि चेन्नई में 61 प्रतिशत लोग सरकारी आपूर्ति से संतुष्ट नहीं है और इनमें से 58 प्रतिशत निजी टैंकरों पर आश्रित हैं। वितरण नेटवर्क से 35 प्रतिशत की बर्बादी के चलते पानी का भरपूर भंडार होने के बावजूद कोलकाता शहर को पानी के टैंकरों पर निर्भर रहना पड़ता है।
पानी का गैर-राजस्व नुकसान यानी लीकेज, बर्बादी या चोरी के चलते बीच रास्ते में ही गुम हो जाने वाला पानी संकट की एक और वजह है। अध्ययनों का आकलन है कि वैश्विक स्तर पर वितरण नेटवर्क के लिए जुटाए और साफ किए गए जल का 30 प्रतिशत हिस्सा गैर-राजस्व पानी बन जाता है। यह आंकड़ा 126 अरब घन मीटर रोजाना का है, जो 8 करोड़ लोगों के लिए प्रतिदिन प्रति व्यक्ति 150 लीटर पानी के बराबर है। 2020 के अध्ययन पत्र के हवाले से नेशनल इंस्टीट्यूट ऑफ अर्बन अफेयर्स का प्रशिक्षण मैनुअल एक्सटेंट ऑफ नॉन रेवेन्यू वाटर बताता है कि शहरी हिंदुस्तान में गैर-राजस्व पानी के रूप में गायब हो जाने वाले पानी की मात्रा वैश्विक औसत से भी ज्यादा (38 प्रतिशत) है।
अध्ययन बताता है कि हैदराबाद, बेंगलुरु, चेन्नई, मुंबई, कोलकाता और दिल्ली जैसे महानगरों में गैर-राजस्व जल नुकसान की दर राष्ट्रीय औसत से कहीं ज्यादा है। 490 मीटर की ऊंचाई तक पानी पंप करने और फिर इसे तकरीबन 100 कमी दूर तक ले जाने के लिए अपनी महत्वाकांक्षी कावेरी जल आपूर्ति योजना का विस्तार कर रहे बेंगलुरु में पानी का भारी-भरकम 50 प्रतिशत नुकसान दर्ज किया जाता है। दिल्ली (58 प्रतिशत) और फरीदाबाद (51 प्रतिशत) में भी नुकसान इसी तरह से काफी ज्यादा है। कोलकाता में वितरण नेटवर्क के जरिए होने वाली क्षति 35 प्रतिशत है और अधिकारी इसे ही पानी के समृद्ध भंडार वाले इस शहर की निजी पानी टैंकरों पर निर्भरता का कारण बताते हैं। कोलकाता नगर निगम के अधिकारी बताते हैं कि 2,180 मिलियन लीटर रोजाना (एमएलडी) जल उत्पादन के साथ यह शहर केंद्र सरकार के 150 लीटर प्रति व्यक्ति प्रतिदिन के पैमाने को पूरा करने के लिए पर्याप्त मात्रा में पानी जुटा लेता है। हालांकि पहचान छिपाने की शर्त के साथ एक अधिकारी बताते हैं, भारी बर्बादी और वितरण में असमानता के चलते हमें प्रतिदिन टैंकरों के जरिए पेयजल की आपूर्ति करनी पड़ती है।
हैदराबाद और बेंगलुरु जैसे तमाम शहरों में स्थानीय नेताओं और जल विभाग के अफसरों के साथ मिलीभगत करके टैंकर मालिक अपना धंधा चला रहे हैं। टैंकर संचालकों के सभी राजनीतिक दलों से संपर्क हैं। सरकार बदलती रहती है, लेकिन इनका धंधा बेरोकटोक चलता रहता है। सिटिजन एक्शन ग्रुप बेंगलोर वाटर वारियर्स से जुड़े सामाजिक कार्यकर्ता कहते हैं कि भारत के सिलिकॉन वैली में पानी उनके लिए हमेशा उपलब्ध है जो इसका खर्च उठा सकते हैं। टैंकर संचालकों ने एक समानांतर व्यवस्था खड़ी कर दी है जो शहर की कमजोरियों का फायदा उठाती है। ये कई लोगों की कीमत पर चंद लोगों को लाभ पहुंचाने के लिए मांग और आपूर्ति में छेड़छाड़ का सटीक उदाहरण है।
बेंगलुरु वाटर सप्लाई एंड सीवरेज बोर्ड (बीडब्ल्यूएसएसबी) के एक अधिकारी ने कहा कि वह राजनीतिक नेताओं, टैंकर मालिकों, बीडब्ल्यूएसएसबी और बृहत बेंगलुरु महानगर पालिका (बीबीएमपी) में पानी की आपूर्ति का जिम्मा संभाल रहे अधिकारियों के बीच हुई बैठकों में शिरकत कर चुके हैं। ऐसी बैठकें महज दिखावा होती हैं। टैंकर मालिकों को तमाम वार्डों में जल आपूर्ति अधिकारियों पर नियंत्रण करने के लिए खुली छूट दी जाती है। पाइपलाइनों के वाल्व का संचालन कर रहे लोगों को या तो तीन दिनों में एक बार पानी छोड़ने या महज 30 प्रतिशत वाल्व खोलने के निर्देश दिए जाते हैं ताकि भूमिगत टैंक या छत पर बनी टंकियों को भरने के लिए पानी का पर्याप्त प्रवाह न हो। इससे वहां के लोग टैंकर बुलाने के लिए मजबूर हो जाते हैं।
बेंगलुरु में नल से जल के गायब होने के विचित्र उदाहरण हैं। व्हाइटफील्ड, राममूर्ति नगर, हेब्बल, राजराजेश्वरी नगर, केंगेरी सैटेलाइट टाउनशिप और ऊंची इमारतों वाले कुछ और संभ्रांत इलाकों में पानी की आपूर्ति लगभग एक ही वक्त पर थम जाती है। यही वो इलाके हैं जहां के लोग टैंकरों को मोटी रकम चुकाने से गुरेज नहीं करते। इसके बाद यशवंतपुरा, राजाजीनगर, विजयनगर,
नीदरलैंड्स की वैगेनिंगेन यूनिवर्सिटी में विकास द्वारा किया गया अध्ययन कई शहरों में पानी विक्रेताओं द्वारा भूजल संरक्षण कानूनों के उल्लंघन की पड़ताल करता है। हैदराबाद में पानी विक्रेता और स्थानीय राजनेता आपस में सांठगांठ कर जल, जमीन और वन अधिनियम-2002 (डब्ल्यूएएलटीए, ये तब लागू हुआ था जब हैदराबाद एकीकृत आंध्र प्रदेश का हिस्सा था) के तहत लागू भूजल नियमों को बिना किसी प्रतिरोध या जुर्माने के ठेंगा दिखा देते हैं।
पंचायत और नगर प्रशासन जैसे स्थानीय प्रशासकीय निकायों पर डब्ल्यूएएलटीए को लागू करने की जिम्मेदारी है लेकिन व्यावहारिक तौर पर वह खुद टैंकरों के जरिए सप्लाई होने वाले पानी के बाजार में हिस्सेदार बन बैठे हैं। हैदराबाद और बेंगलुरु जैसे शहरों में पानी के विक्रेता स्थानीय राजनेताओं के समर्थन से औपचारिक आपूर्ति नेटवर्क का एक हिस्सा बन चुके हैं। यह न सिर्फ शहरी गरीबों की जरूरतों का निपटारा करना चाहते हैं बल्कि साझा भंडार वाले संसाधन से मुनाफा भी कमा रहे हैं। अध्ययन के मुताबिक अक्सर टैंकरों से मिलने वाले पानी की गुणवत्ता और मात्रा सवालों के घेरे में रहती है।
बेंगलुरु स्थित निजी संगठन बायोम एनवायरमेंटल ट्रस्ट के मुताबिक, निजी टैंकरों को औपचारिक जल आपूर्ति प्रणाली से दूर नहीं किया जा सकता। चूंकि सरकारें स्वच्छ और नियमित जलापूर्ति सुनिश्चित करने में विफल हो रही हैं इसलिए टैंकर आपूर्ति की जरूरत बरकरार है। नगर निकायों की विशाल, केंद्रीकृत जल प्रबंधन प्रणालियों की ऐसी खामियों के चलते टैंकर का उपयोग करने वाले छोटे पैमाने के जल विक्रेता पानी की मांग-आपूर्ति की खाई को पाटने में योगदान देने वाले किरदार के तौर पर उभर रहे हैं।